तुम मिले... जीवन में नयी आशा का संचार हुआ
तुमसे मिली एक नयी ताज़ा सांस ...देदम होते फेफड़ों को
तुमसे सीखा बहुत कुछ... सीखी कुछ आदतें... कुछ अच्छी...कुछ बहुत अच्छी
तुमसे देखा कुछ नया... पुराने सी दुनिया का नया चेहरा... तुम्हारे चश्म से
और सीखा... बेंतान्हा मुहब्बत करना...
इतना कुछ सीखा... खुद को ढाला तुम्हारे रंगों में रंग लिया
किन्तु... अब भी मिल जाता है कभी कभी अपने पुराने वजूद का हिस्सा
मचलता हुआ बहार जब वह आ जाता है... क्रोध और विवशता के आलम में
और उतनी ही बार चुकानी पड़ती है मुझे कीमत... कभी अपने क्रोध कि,
... और कभी अपने अन्दर मौजूद उस पुराने पहचान की
सोचती हूँ... कि क्यों दो-दो रूप नहीं हो सकते मेरे इस पहचान में?
या फिर... इस सीखने -सीखाने के प्रक्रिया में क्या भूल रही हूँ में... ?
या फिर यह कि प्रेम कि अभिव्यक्ति समर्पण में है या फिर आत्मा-परिचय में?
यदि समर्पण ही उत्तर है तो...तुम्हारा प्रेम मुझे जीवन के संग्राम में अकेला क्यों छोड़ देता है,
यह कहता हुआ कि साहसी बनो, अपनी लड़ाई स्यवं लड़ो?
और यदि आत्मा-परिचय ही सही रास्ता है तो यह कौन तय करेगा कि मेरा परिचय संपूर्ण है या अधुरा?
अंतत, यह कौन तय करता है कि कहाँ मुझे शिखा रूप में रहना है
और कहाँ मुझे अभिसारिका रूप में?....या कि जीवन संगिनी के रूप में या फिर मित्रवत?
मुझे कब बोध होना चाहिए कि प्रेम कि सीमाएं किताबी मर्यादा है या फिर सामाजिक आँख का पानी?
कब मालूम पड़ना चाहिए कि तुमसे प्रेम का अर्थ एक कप cutting चाय साथ पीने का नाम है
... या फिर कामायनी पर विवेचना?
तुमसे प्रेम करने वक़्त इतना नहीं सोचा था... एक प्रवाह था जिसमें हम बहे चले जा रहे थे...
आज क्यों ढूंढ रहे हैं हम... वह छोटी सा मचान जिस पर बहते वक़्त शायद हम किसी और रूप में तब्दील हो गए...
नहीं मालूम...
आज भी जब तुम्हरे उस मासूम सी हसीं और निर्दोष सुन्दरता को देखती हूँ...
मुहब्बत करने लगती हूँ उस शख्स से जिसने मेरा हाथ थामा सदा के लिए...
पल पल मिटने वाली दुनिया में मुझे स्थिरता दे गया सदा के लिए
... उस एक पल के लिए... तुम्हे जीवन के कर एक पल में प्रेम किया है...तुम्हारे मोहन्मय संसार को जिया है!!