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Sunday, February 10, 2013

दुःख और द्वन्द

मैं तेरे दुःख में शामिल नहीं 
तेरे ख़ुशी मैं शरीक नहीं हो सकती 
मुझे बस हमदर्दी का रिश्ता निभाना है
वह भी, मुझे खुद खबर नहीं क्यूँ?
शायद, ज़माने के लिए,
शायद अपने अन्दर मौजूद इंसान के लिए 
संभवतः उस शिक्षा-दीक्षा के लिए,
जिससे हो कर आज  यह मुकाम है की मैं तुझे दया-भाव से देख सकूँ 

मैं तेरे दुःख का हिस्सा थी, 
तू मेरे दर्द का सबब था
तेरी जिद ने, छीना  घरवालों का अमन -चैन 
तेरी खुदगर्जी ने किया हमें बेघर- बेठौर 
चलो ,माफ़ किया एकबारगी ...
लेकिन उन अनगिनत एहसासों का क्या 
जिसे तेरी ईष्या ने किया कलुषित, तार-तार

शायद एक दिन, हम हमदर्दी के रिश्ते के अलावा 
अजनबियत के सम्बन्ध को निभा सकेंगे।
तब तक मुझे अपने अन्दर चल रहे द्वन्द के कारण नहीं चाहिए 
नहीं चहिये मुझे कोई ठौर, कोई आश्वासन ,
दिल के जटिलताओं का कोई आधार 
मैं अपने दुःख और द्वन्द के साथ जीना जानती हूँ 

(Sometimes, we wish to forgive people with all our heart... but somewhere, within the folds of memory lanes, where still something stirs as if it's still alive, in the past...watching us all over... that just for 'its' sake, to be fair and just, you find it difficult to forgive...)

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